संजीदा नारी
समझती थी वह पूरी दुनिया, अपने पिता की छांव को
सारी शिकवा छोड़ हंस देती थी, देख मां के लगाव को
वही मां पापा की परी देखो आज कितनी बड़ी हो गई
गिरते संभलते खाते ठोकर,
नारी एक संजीदा खड़ी हो गई
दौड़ दिखाती थी जाकर, जो अपने छोटे से घाव को
अपने पर ही चाहती थी हमेशा, अपने पिता के झुकाव को
वही मां पापा की परी देखो आज कितनी बड़ी हो गई
की छिपा कर हर घाव को हंसने की,
उसकी ये तपस्या कड़ी हो गई
छन छन करती उसके पैरों की पायल, जब दिखाती थी घर में जुड़ाव को
तोतली सी बोली में- दिखती हूं मां जैसी, जब बताती थी अपने बनाव को
वही मां पापा की परी देखो आज कितनी बड़ी हो गई
चुप सहते सहते सालों से देखो वह,
सहने की एक लड़ी हो गई
छोटा सा उसका मन मानो तो छोटे से उसके सुझाव को
समय रहते समेट लो , उस चंचल छवि के बिखराव को
वही मां पापा की परी देखो आज कितनी बड़ी हो गई
शांत आंखें और निश्चल मन भी बोल पड़े,
कि आज यह घड़ी हो गई
- Swapna Sharma
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