फिसल गई ज़मी पैरो से और छूने को आकाश दौड़ते हैं
कुछ लगा ना हाथ बस लेकर के दिल में आस दौड़ते है
बस कामयाब होने को जीवन में लूट गए यहां जमाने में
विश्वास अब ताक पे रख कर के बस अविश्वास दौड़ते हैं
इंसानियत को कर के दूर बस दर्द के एहसास दौड़ते हैं
बने हुए हैं पत्थर और बन कर के जिंदा लाश दौड़ते हैं
यहां अपने ही स्वार्थ को काला बाजारी की तिगड़म में
ये लोग बस बन कर के इंसानियत के परिहास दौड़ते है
- Swapna Sharma
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